नैतिक जीवन में गिरावट पर एक चिंतन - "नागरिक की पुकार"
"जे एस फौजदार" आगरा की उन प्रमुख शख्सियतों में शामिल नाम है, जिन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। चाहें वे पहले शिक्षक रहे या फिर बिल्डर, उन्होंने अपनी अलग छवि बनाई। जीवन के उत्तरार्द्ध में देश- देशांतर में घटती घटनाओं पर उनका मन जब कभी उद्वेलित होता है तो वे अपनी भावनाओं को अक्षरों का रूप देने में जुट जाते हैं। "न्यूज नजरिया" पूर्व में भी अपने पाठकों के समक्ष उनके विचार रखता रहा है। इस बार जे एस फौजदार ने "नागरिक की पुकार" नाम से पत्र के रूप में समाज में तेजी से आई गिरावट पर कड़ा व्यंग्य किया है। यहां प्रस्तुत है उनका यही व्यंग्यात्मक आलेख:-
नागरिक की पुकार
विषय- संवैधानिक तरीके से असंवैधानिक कार्य करने की इच्छा के लिए आपके माध्यम से, किसी संविधान विशेषज्ञ की राय लेने के लिए संविधान की मान्यताओं में सहायता हेतु प्रार्थना।
महोदय
उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में एक कवि हुए थे- "पाप", वो मौसम व सामाजिक मान्यताओं आदि विषयों पर कविता लिखते थे। उनके अनुसार, "जो कहूँ होये, गैल पर धाम, और हो बड़े-बड़ेन में नाम, जो कहूँ होय वित्त से हीन, दास कहे मोहे विपदा तीन।"
इस प्रकार किसी भी साधारण आदमी की तीन परेशानियाँ वो बताया करते थे। मुझे ये तीन परेशानियों तो नहीं हैं परन्तु मेरी समस्या यह है कि एक तो मैंने उस समय में जन्म लिया, जब अधिकतर लोग परम्पराओं का निर्वहन करते थे, दूसरे ऐसे परिवार में लालन-पालन हुआ जहाँ कानूनी व सामाजिक मान्यताओं पर चलना अपना कर्तव्य समझा जाता था। आज उन मान्यताओं का निर्वहन कुछ कठिन हो गया है, इसे लेकर निम्नप्रकार की समस्याएं सामने आती हैं-
1. रोजमर्रा के व्यवहार में अनुशासित रहना कठिन है।
2. कार्य को ईमानदारी से करना असम्भव।
3. बिना मिलावट कोई वस्तु प्राप्त करने में कठिनाई।
4. प्राकृतिक वातावरण अत्यंत दूषित व प्रदूषित।
5. सामाजिक वातावरण में सामञ्जस्य के साथ, आदर्श विचारों का निर्वहन असम्भव।
6. शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट।
7. किसी सीमा तक जीविकोपार्जन में भी कठिनाई।
8. परिभाषाओं में परिवर्तन से सही दिशा का निर्णय करना अत्यंत कठिन।
9. भावनाओं के दोष पूर्ण होने से चारित्रिक पतन।
10. राजनैतिक क्षेत्र में आई गिरावट, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व सांस्कृतिक विकृतियों का कारण बन गयी है।
11. लोकतंत्र लगता है भीड़ तंत्र में बदल गया है, लोकतंत्र के चारों स्तम्भ धराशायी हो गए हैं।
12. प्राकृतिक क्षमताओं की तुलना में आर्थिक क्षमताओं का सामाजिक महत्व।
परन्तु आज अगर कोई नियमों की बात करें तो लोग कह देते है कि तुम तो सिद्धान्तों की बात करते हो, प्रैक्टिकल बनो। अब समस्या यह है कि ये प्रैक्टिकल क्या है। क्या ये सबके लिए समान है।
चूंकि नियमानुसार काम करने की आदत पड़ गयी है अतः गलत काम करने में असुविधा होती है तो इसका एक ही उपाय है कि सभी गलत कार्य करने को वैधानिक व सामाजिक मान्यता प्रदान की जाये।
प्रार्थी
एक आहत प्राणी
अगर आप उपरोक्त से सहमत हैं तो..
प्रश्न - आज भी भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में सनातनी परम्पराओं का प्रभाव होते हुए भी एक नागरिक के रोजमर्रा के जीवन में समस्याएँ क्यों?
लेखक - जे एस फौजदार
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