वन्दे हिंदी समागम: भाषा को गौण या श्रेष्ठ की श्रेणी में विभाजित नहीं किया जा सकता

नजरिया-- जे.एस. फौजदार
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व्याकरण के नियम व उपनियम का पालन करते हुए हृदयगत उदगारों की अभिव्यक्ति का माध्यम ही "भाषा" कहलाती है। भाषा को गौण या श्रेष्ठ की श्रेणी में विभाजित नहीं किया जा सकता और न हमें कभी इस प्रकार का प्रयास करना चाहिए। मेरे अनुसार तो सभी भाषाओं का समान रूप से सम्मान करना चाहिए यद्यपि इसका कारण यह भी हो सकता है कि मैं किसी भी भाषा में पारंगत नहीं हूँ। इस परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा के उत्थान व सम्मान को लेकर मेरे अपने कुछ विचार हैं।
कार्य का क्रियान्वयन उद्देश्य के 
अनुसार नहीं, नीयत के अनुसार
हमारे कार्य करने का तरीका, कार्य के उद्देश्य पर नहीं बल्कि उस उद्देश्य के पीछे नीयत (भावना) क्या है, इसके ऊपर निर्भर करता है। दो लोगों का उद्देश्य एक हो सकता है परंतु उनकी नीयत अगर अलग है तो कार्यप्रणाली भी अलग होगी। अगर वास्तव में हम हिंदी को और भाषाओं की तुलना में वंदनीय बनाना चाहते हैं तो अपनी अभिव्यक्ति व विचारों में किसी दूसरी भाषा का सहारा नहीं लेना चाहिए। इसके साथ-साथ अपने संगठन, संस्थान, पद व पदवी आदि का उल्लेख हिंदी भाषा में करने में हम गर्व महसूस करें।
साहित्य, कला व संस्कृति 
का भाषा पर प्रभाव
1. साहित्य:- सामाजिक परिस्थितियों व अनुभूतियों का विभिन्न रस व अलंकार आदि व्याकरण के नियमानुसार, वर्णन करते हुये यथार्थ की परिकल्पना का चित्रण करके, सामाजिक विकृतियों को दूर करने वाली भाषा मुद्रण को साहित्य कहते हैं। किसी भी साहित्य का सृजन, भूतकाल में अर्जित ज्ञान के विश्लेषण से ही सम्भव है।
2. कला - ज्ञान की चेतना व अनुभूतियों का विभिन्न विधाओं से प्रयोगात्मक चित्रण व अभिव्यक्ति करने को कला कहते हैं। कला, चेतना को प्रेरित व विस्थापित करने का माध्यम है।
3. संस्कृति - साहित्य व कला से उत्पन्न होकर, सामाजिक परम्पराओं द्वारा, जीवन में प्रवाहित व व्यवहारिक चेतना को प्रदर्शित करके आचार, विचारों को परिमार्जित करने वाले प्रभाव को संस्कृति की संज्ञा दी गई है। साहित्य को संस्कृति में परिवर्तित करने के लिये या संस्कृति से साहित्य की उत्पत्ति के लिये उचित माध्यम कला ही है। इसी संस्कृति के प्रभाव से ही हमारे व्यवहार व संस्कारों का परिमार्जन होता है। संस्कार व व्यवहार में जब विकृति आ जाती है तो भाषा भी दूषित हो जाती है। अतः भाषा को दूषित होने से बचाने के लिये हमें अपने व्यवहार को सभ्यता की श्रेणी में रखना पड़ेगा।
4. कृति:- "कृति" का आशय कार्य की पूर्णता को दर्शाता है जो परिकल्पना को क्रियान्वित करने से प्राप्त होता है। इसके दो पहलू परिकल्पना मानसिक व क्रियान्वन शारीरिक बराबर ही महत्ता रखते हैं जो सकारात्मक रुख के बाद ही किसी "कृति" का आभास कराते हैं। अगर किसी प्रकार मानसिक या शारीरिक प्रयास में नकारात्मक पहलू का पदार्पण होता है तो "कृति" के साथ "वि" विसर्ग जुड़ जाता है और "विकृति" में परिवर्तित होकर अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अतः अगर हम विकृतियों से बचना चाहते हैं तो अपनी सोच को सकारात्मक रखना होगा।
अगर सांसारिक पहलुओं पर दृष्टिपात करें तो प्रकृति को छोड़कर कोई भी वस्तु पूर्ण नहीं है फिर भी मानवीय दुर्बलताओं से बचकर हम प्रयास करें तो पूर्णता की ओर अग्रसित हो सकते है। "कृति" को "विकृति" में परिवर्तित करने वाले दो मुख्य कारक हैं- "अहम' व 'स्वार्थ' जो हमारी कार्य पद्धति को बदलकर समाज व देश का सर्वनाश करने में अपना पूर्ण योगदान दे रहे हैं। आज हम देखते हैं कि सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक सभी क्षेत्रों में हमारा व्यवहार, असभ्यता की सीमा तक पहुंच गया है जो वातावरण को दूषित करते हुए, हमारी भाषा को भी असभ्य बना रहा है।
प्राकृतिक क्षमताओं 
का सम्मान
कोई भी विषय चाहें विज्ञान, गणित, सामाजिक विषय या भाषा विज्ञान प्रकृति से परे नहीं हो सकता। हर विषय में प्रकृति की क्रिया व परिणामों के बारे में ही हम जानकारी करते हैं।
प्रकृति कभी भी, किसी को भी, भौतिक रूप में कोई वस्तु नहीं देती, वरन् वह हमें ऐसी वस्तुएं प्रदान करती है जिससे हम अपनी क्षमताओं में वृद्धि करते हुए अपने साधनों के रूप में भौतिक वस्तुओं का उत्पादन कर सकें। यही सामाजिक संरचना हम अपने व्यवहार में परोक्ष व अपरोक्ष रूप से अपनाएं अर्थात समाज में प्राकृतिक यानि मानसिक व शारीरिक क्षमताओं वाले लोगों को अधिक सम्मान प्रदान करें। 
हम जानते हैं कि एक विद्वान के लिए कोई भी भाषा गौण या श्रेष्ठ नहीं हो सकती वह तो सभी भाषाविदों को समान रूप से ही देखेगा। हम में से बहुत सारे लोग हिंदी भाषा के प्रयोगकर्ता को छोटा महसूस करते हैं, जो हिंदी को बहुत ही ठेस पहुंचाने वाला कर्म है। कुछ लोगों का विचार है कि हिंदी को मातृभाषा का दर्जा दिया जाए। मैं प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के 13-12-2022 को वाराणसी में कहे हुए वाक्य याद दिलाना चाहूंगा। उन्होंने कहा था मैं देश से तीन संकल्प चाहता हूं- 1- सृजन 2- स्वच्छता और 3- आत्मनिर्भरता।
"सृजन" विभिन्न अवयवों के प्राकृतिक मिलन की क्रिया का परिणाम है और ये भिन्नता ही तो हमारी वास्तविक संस्कृति है। अतः हिंदी को मातृभाषा बनाने की बजाय उसके प्रयोगकर्ता को सम्मान देना प्रारंभ करें। इसके साथ साथ सभी भाषाओं का भी हम सम्मान करें, तो हिन्दी स्वतः ही सम्मानित हो जायेगी।
शब्दकोष में वृद्धि
इतिहास पर हम दृष्टिपात करें तो देखेंगे कि प्राचीन भारत जब तक विदेशियों की कुदृष्टि से बचा हुआ था उस समय तक संस्कृत भाषा देश में एक समृद्धि सूचक प्रसंगों में काम आने वाली हर चीज को परिभाषित करती रही, परन्तु विदेशियों के साथ दो विदेशी वस्तुयें भी भारत में आती गयीं और उनको हम उनकी विदेशी भाषाओं के नाम से ही उच्चारण करते रहे। इस प्रकार हमारी हिन्दी भाषा कई भाषाओं का मिश्रण बनती गई। उन विदेशी वस्तुओं का नाम हमने अपनी हिन्दी में भी रखना प्रारम्भ किया। परन्तु कहीं-कहीं वह कुछ क्लिष्ट व अप्रासांगिक था, जैसे रेलगाड़ी को लौह पथ गामिनी कहना कुछ अटपटा भी लगने लगा और हमारी हिन्दी भाषा खिचड़ी भाषा बनती गई। मेरी सोच यह है कि दूसरी भाषाओं के सरल शब्दों को हमें अपने शब्दकोष में समाहित कर लेना चाहिये।

(लेखक शिक्षाविद रहे हैं और वर्तमान में आगरा के प्रमुख कॉलोनाइजर हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं।)
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