क्षुद्र स्वार्थों के कारण तरक्की और प्रेम के रास्ते से भटक गये हम

नजरिया/आलेख- अशोक शर्मा
आज भारतीय समाज उस जगह आकर खड़ा हो गया है, जहां भारत के लोग एक-दूसरे को शक की नजर से देखने लगे हैं। सब को ऐसा लगता है कि हमारा हक खाने व मारने वाला यही है।
मुझे इसका कारण स्पष्ट दिखाई देता है कि आजादी के बाद हमारे तथाकथित आईकोन नेताओं ने समाज में समता, स्वतंत्रता, भाईचारा, न्याय, लोकतंत्र और लोक एकता लाने के लिए जो रास्ता चुना, वह रास्ता आरोप, प्रत्यारोप व घृणा का भाव बढ़ाने का रहा, न कि प्रेम व भाईचारा बढ़ाने का।
अंग्रेजों से आजादी प्राप्त करने के बाद हमारे सामने चुनौती थी कि हम राज्य सत्ता को नौकरशाही के चंगुल से बाहर निकाल कर, आम आदमी के हाथ में सौंपें और वे आम लोगों के लिए काम करें। दूसरी चुनौती यह थी कि जो ज्ञान बुद्धिजीवियों तक रुक गया था, वह मजलूमों और मजदूरों तक पहुंचे। तीसरी चुनौती थी कि धन या पैसे पर कुछ लोगों का नियंत्रण खत्म हो और धन चल कर आम आदमी तक पहुंचे, जिससे गरीबों के जीवन में खुशहाली ला सकें।
मगर क्षुद्र स्वार्थों के कारण हम तरक्की व प्रेम के उस रास्ते से भटक गए, जो गांधी जी ने आंदोलन के दौरान दिखाया था। अगर हम गौर से देखें तो साफ दिखाई देता है कि आधुनिक भारत के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण बात यह समझने की है कि जिन महिलाओं और पुरुषों ने भारत के इतिहास को बनाया, वे सभी राजनीतिज्ञ और राजनीतिक चिंतक ही थे। खासतौर पर तीन मूर्ति के नाम से गांधी, नेहरू और अंबेडकर जाने जाते हैं।
पहला व्यक्ति गांधी जिसको राष्ट्रपिता के नाम से संबोधित किया जाता है। उनके नेतृत्व में वर्ष 1920 से 1940 के बीच पूरे देश में अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ आंदोलन चला। नंबर दो, पंडित नेहरू जिन को आधुनिक भारत का शिल्पी कहा जाता है, जिन्होंने भारत की सेवा आजादी के जन्मकाल वर्ष 1947 से लेकर अपनी मृत्यु मई 1964 तक प्रधानमंत्री के रूप में की। तीसरे डाक्टर अंबेडकर जिन्होंने भारत के संविधान के प्रारूप को इस तरह तैयार किया जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि देश का समाज समता प्राप्त करते हुए सुदृढ़ हो सके। यह प्रारूप संविधान के रूप में 26 जनवरी, 1950 को प्रभावी ढंग से अस्तित्व में आया।
उपरोक्त तीनों नेता बीते भारतीय संघर्षों के सहभागी थे, जिन्होंने दुनिया में अपनी छाप छोड़ी और भारत को राष्ट्र के रूप में एक आकार प्रदान किया। भारत की राजनीति में दो शब्द पहला सेकुलर और दूसरा सामाजिक न्याय, जिसने भारत के समाज और राजनीति को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। इन दो शब्द का इस्तेमाल समाज में समता लाने के लिए आरोप-प्रत्यारोप, घृणा, नफरत का भाव बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। भारत के समाज में अंतर्निहित जातियां अपने पिछड़ेपन के लिए ब्राह्मण जाति को जिम्मेदार ठहरा रही हैं। वो जातियां और उनके नेतागण शिकार ग्रंथि से ग्रसित होकर अपनी कमजोरियां दूर करने की जगह घृणा फैलाने में मशगूल हैं।
सरकार का नेतृत्व करने वाले दल संसाधनों को बढ़ाने का कोई काम नहीं कर रहे हैं। क्योंकि संसाधनों के बढ़ते ही नफरत फैलाने का मौका जाता रहेगा।
वर्तमान सरकार एक सेल्समैन की तरह अपने मानव स्त्रोतों को कम कीमत पर बेचने के साथ कीमती संसाधनों को बेचने में लगे हैं। ऐसा करके वह ऐसा ज्वालामुखी तैयार कर रहे हैं, जो देर-सवेर फटने वाला है।
भारत की आज़ादी के सपने को साकार करना है तो यह सुनिश्चित करना होगा कि कानून का नियम सब पर समान रूप से लागू हो। चाहें नेता, व्यापारी, सरकारी नौकरी करने वाले, पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों के साथ न्याय पालिका के न्यायाधीश।

(लेखक जेपी आंदोलन के सक्रिय सदस्य रहे एवं युवा छात्र संघर्ष वाहिनी के राष्ट्रीय समन्वयक हैं। आलेख में प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)

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