मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया को जन भागीदारी से आंदोलन में बदलना होगा

नजरिया---- पूरन डावर
सामाजिक चिंतक एवं आर्थिक विश्लेषक
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मैं देश के प्रति अति आशान्वित हूँ। हमने आजादी के 75 वर्ष अभी पूरे किए हैं। इन वर्षों में कई बड़े परिवर्तन देखने को मिले हैं। आज देश के नारे बदले गये हैं। पहले नारे हुआ करते थे- अंग्रेजो भारत छोड़ो, इंकलाब जिंदाबाद। हमारी जरूरत अंग्रेजों से छुटकारा पाकर आज़ादी हासिल करने की थी, मगर आज आवश्यकता है आत्मनिर्भरता की। अब देश में आर्थिक विकास के नारे मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, स्पीडअप इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, अपस्किल इंडिया, री-स्किल इंडिया के रूप में बदल चुके हैं।
जनता आजादी के नारे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लगाती थी। आज यह बदले हुए नारे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की सरकार दे रही है, जिसे हमने चुना है देश के विकास और आत्मनिर्भरता के लिये। लेकिन क्या सरकार के यह नारे हम सबका साथ दिये बगैर अथवा सुर में सुर मिलाए बिना पूरे हो सकते हैं? शायद कतई नहीं..! हमें सरकार के इन प्रयासों के साथ खड़ा होना होगा। सुर में सुर मिलाकर एक जन आंदोलन के रूप में सकारात्मक भागीदारी करनी होगी।
एक व्यक्ति के जीवन में 75 वर्ष का समय लम्बा होता है लेकिन किसी देश के लोकतंत्र के लिये यह समय अधिक नहीं है। अमेरिका की स्वतंत्रता के पहले 75 वर्ष का अगर इतिहास देखें तो शायद वह इस स्थिति पर भी नहीं था। इसमें विचलित होने का कोई कारण नहीं है। लोकतंत्र एक हैंडपंप की तरह होता है, पहले मिट्टी निकलती है फिर गंदा पानी निकलता है, उसके बाद धीरे-धीरे साफ पानी निकलने लगता है। गीता का सबसे महत्वपूर्ण वाक्य है कि जब अति होती है तब 'मैं' आता हूँ। लोकतंत्र में आजादी के उन्माद में हम अति तक पहुँचते हैं फिर हमारे अंदर से ही निकलता है 'बस और नहीं' यह बंद होना ही चाहिए। आज करुणा और ओज के कवि दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियाँ कमोबेश हर कार्यशाला में सुनाई देती हैं- 'हो गयी पीर पर्वत सी अब पिघलनी चाहिये, अब इस हिमालय से एक और गंगा निकालनी चाहिए।'
आज भारत तेजी से आगे बढ़ रहा है, जहां कोविड के बाद अनेक देशों की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गयी और विकसित देश भी महंगाई की मार से त्रस्त हैं। मुद्रा स्फीति की दर दहाई पार कर गयी है। ऐसे में हम सीमित मुद्रास्फीति के साथ तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। कोविड काल को अभी मात्र एक वर्ष ही पूरा हुआ है। तमाम हाय-तौबा थी। चर्चाएं थीं कि भारत में वैक्सिनेशन हो ही नहीं सकता। इसमें कम से कम 15 वर्ष लग जाएँगे। आज 200 करोड़ से ऊपर टीकाकरण हो चुका है और एक क्लिक पर सर्टिफिकेट भी जारी हो रहे हैं। अमेरिका भी ऐसा नहीं कर सका है और भारत 100 से अधिक देशों में विश्वास के साथ वैक्सीन का निर्यात भी कर रहा है। यह भारत की गतिशीलता को दर्शाता है।
अब बात करते हैं डिजिटल इंडिया की। इसको लेकर सोच थी कि भारत जैसे ग्रे मार्केट वाले देश में डिजिटल कैसे होगा? आज डिजिटल लेन-देन में हम विश्व में एक नंबर पर हैं। मुझे लगता है, इस प्रकार आने वाले समय में ग्रे मार्केट दूर की कौड़ी हो जायेगी। भारत को लेकर आज विश्व की धारणा बदली है। हमें तैयार रहना है उद्यमिता के लिये। भारत का विश्व की ग्लोबल फैक्टरी बनना निश्चित है।
महज नौकरी के लिये डिग्री हासिल करना शिक्षा का अर्थ कतई नहीं है। शिक्षा ज्ञान के लिये है, मात्र नौकरी के लिये नहीं। आपके पास ज्ञान होगा तो 10 को नौकरी देंगे, माँगेंगे नहीं। पहले जमाने में अंग्रेजी शिक्षा नौकरी और अंग्रेजों की चाकरी के लिए थी। आज भी हम उसी शिक्षा का शिकार हैं। नई शिक्षा नीति उद्यम आधारित है। इसे तेजी से लागू करना होगा। अंग्रेजी भाषा नहीं, आपकी अपनी मातृ भाषा ही आपको आगे बढ़ा सकती है। कभी भी कोई देश दूसरे देश की भाषा पर विकसित नहीं हो सकता।
इसी प्रकार जातियों की बात करें तो वैश्य कोई जाति नहीं थी, जो व्यापार करता था, वही वैश्य कहलाता था, जो शास्त्रों का ज्ञाता होता था, वो ब्राह्मण कहलाता था। हमारी जातियाँ, जिन्हें आज हमने पिछड़ा और दलित घोषित किया है, वह जातियाँ नहीं बल्कि उनके काम की पहचान थी जोकि देश की अर्थव्यवस्था और रोजगार की रीढ़ थी। यदि आवश्यकता थी तो उनको शिक्षित कर उनके काम को सम्मानजनक बनाने की, उनके कौशल को निखार कर घरेलू उद्योग से लघु एवं मध्यम दर्जे के उद्योग में बदलने की। लेकिन उन्हें आरक्षण का झुनझुना पकड़ाकर ताउम्र पिछड़ा और दलित घोषित कर दिया गया। चंद लोग विधायक, सांसद, सरकारी अधिकारी बन कर भी दलित और पिछड़े ही कहलाते हैं। विडम्बना यह है कि लाभ लेने के लिए पिछड़ा कहलाने में कोई गुरेज भी नहीं है।
शिक्षा नाई को सैलून, ब्यूटी पार्लर या मेकओवर आर्टिस्ट में बदल सकती है, दर्जी को फैशन डिजाइनर मेक टू मेजर में बदल सकती है, कुक को शेफ में, ड्राइवर को शोफर में, मोची को शू क्लीनिक में, चाय वाले को चयोस में, कॉफी कैफे डे में, पकोड़े वाले को मेक डोनाल्ड में, हलवाई को हल्दीराम में, धोबी को लॉन्ड्री और ड्राई क्लीनर्स में, गाय भैंस चराने वाले यादवों को डेरी संचालक में। भेड़ चराने वाले गड़रिया या किसान जैसे पेशेवर आधुनिक तकनीक अपनाकर अपना जीवन बदल सकते हैं, आधुनिक तकनीक से की गई खेती से पानी की बचत भी की जा सकती है। किसानों के बच्चों को किसानी छोड़कर शहरों में नौकरी की कतई आवश्यकता नहीं, बल्कि वे स्वयं कई लोगों को नौकरी दे सकते हैं। सफाई वाले पढ़-लिख कर हाउसकीपर कहलाते हैं। इन सारे कार्यों को सम्मानजनक बनाया जा सकता है। उद्योगों की शक्ल दी जा सकती है।
युवाजन एप के माध्यम से जोड़कर अव्यवस्थित कार्यों को व्यवस्थित कर सकते हैं। माली, प्लम्बर, इलेक्ट्रिशन, हाउस कीपिंग, सिक्योरिटी को एप पर जोड़कर आय बढ़ा सकते हैं और बड़ी बचत भी करा सकते हैं। गाँवों में बन रहे छोटे-छोटे उत्पादों को विश्व के किसी भी कोने में बेच सकते हैं। फाइव-जी सेवा आने से इसकी गति और तेज हो सकती है। कुल मिलाकर एक तरफ देश का रोड इन्फ्रास्ट्रक्चर, दूसरी ओर तेजी से बढ़ती 5 जी डिजिटल तकनीक एक बड़ी गति देने वाली है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि भारत में रोजगार या नौकरियाँ नहीं हैं तो विकसित देशों में कैसे हो सकती हैं, जहाँ आधे से अधिक कार्यों को मानव के बजाय तकनीक के माध्यम से किया जाता है।
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(लेखक आगरा के प्रमुख उद्यमी भी हैं और फुटवियर निर्यातकों की संस्था एफमेक के अध्यक्ष हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)
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