आगरा के समाजसेवी पूरन डावर का आजादी के अमृत महोत्सव पर चिंतन
75वें वर्ष में मूल एवं भूल सुधारों
पर गम्भीर होना होगा.....
जिन जातियों की उनके काम के नाम से पहचान थी जो देश के रोजगार और स्वरोजगार की नींव थे जो देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाते थे, यदि सुदृढ़ नहीं तो कम से कम देश पर बोझ नहीं थे। लेकिन उनके श्रम का सम्मान कम था या यूँ कहें सम्मान था ही नहीं, उन्हें अच्छी शिक्षा देकर लघु एवं मध्यम उद्योगों में बदला जा सकता था। उन्हें सम्माजनक बनाया जा सकता था मगर विडम्बना रही कि उन्हें आरक्षण का झुनझुना पकड़ा कर जीवन पर्यन्त दलित घोषित ही नहीं बल्कि पिछड़ा व दलित बना दिया।
चंद लोग आरक्षण का लाभ लेते हैं और वह सांसद, विधायक, आईएएस, सरकारी अधिकारी बन कर भी जीवनपर्यन्त पिछड़े व दलित कहलाते हैं, बाकी के हाथ से काम छिन गया, डिग्री लेकर घूम रहे हैं और बेरोज़गारी का रोना रोने के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं बचा।
आजादी के 75वें वर्ष में सरकार को, देश की संसद को कुछ सोचना होगा। डिग्री के साथ पारम्परिक रोजगारों के स्तर को उठा कर अपने पैरों पर खड़ा करना होगा। नौकरी में आरक्षण बंद करना होगा। हमें आर्थिक आरक्षण पर ध्यान देना होगा, यदि कामगार पारम्परिक हुनरमंद आरक्षण के झुंझने के कारण काम छोड़ देंगे तो देश कभी आगे नहीं बढ़ पायेगा। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा निःशुल्क, आर्थिक सहायता प्राप्त उच्च तकनीकी और उनके काम उठाने के लिए सस्ती ऋण व्यवस्था कारगर हो सकती है।
पारम्परिक नाई पढ़-लिखकर मेकओवर आर्टिस्ट बन सकता है, मसाजवाला स्पा या थेरेपी सेंटर खोल सकता है, मोची शू क्लीनिक में बदल सकता है, चर्मकार जूता कारखाने का मालिक बन सकता है, चायवाला कॉफी कैफे डे बना सकता है। पकोड़ेवाला मेक डोनाल्ड बन सकता है, हलवाई हल्दीराम बन सकता है, रसोइया शेफ बन सकता है, ड्राइवर शोफर बन सकता है, गाय-भैंस गड़रिये, अहीर, बघेल डेयरी मालिक हो सकते हैं। पढ़-लिखकर शाक्य या कुशवाह आधुनिक खेती कर फार्म मालिक हो सकते हैं। धोबी वॉशिंग हाउस वाले बन सकते हैं।
ये जातियाँ नहीं उनके काम थे, लेकिन पढ़े-लिखे न होने के कारण सम्मान नहीं था। किसान शिक्षित हो कर अपना ही नहीं देश का भाग्य बदल सकता है।
आजादी का अमृत महोत्सव सही मायने में तभी सफल होगा जब समय के साथ पूर्व निर्णयों पर पुनर्विचार हो। सरकारी नौकरियों में आरक्षण उस समय की माँग हो सकती है। उस समय के निर्णयों पर प्रश्न चिन्ह नहीं है, लेकिन सभी कामगारों को नौकर नहीं बनाया जा सकता। आज़ादी के 75वें वर्ष में इन कामगार जातियों को दलित या पिछड़ा न मानकर कामगार का दर्जा देना होगा। सरकारी नौकरी नहीं प्रारम्भिक शिक्षा व तकनीकी शिक्षा के साथ उनको उद्यमियों के रूप में खड़ा करना होगा।
-पूरन डावर
सामाजिक चिंतक एवं आर्थिक विश्लेषक
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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