लालच नहीं लिखने देता जेनेरिक दवायें

कमीशन के खेल में ठगे जा रहे हैं बेचारे मरीज
डॉक्टर देते हैं पांच गुना महंगी दवाओं पर जोर
जन-औषधि केंद्रों की दवाएं करा देते हैं वापस
आगरा, 10 मई। बढ़ती महंगाई के कारण रोजमर्रा की वस्तुएं महंगी होने के साथ ही दवाओं पर भी इसका असर पड़ा है। महंगी दवायें आमजन की पहुंच से दूर होती जा रही हैं। केंद्र सरकार आमजन को सस्ती दवा उपलब्ध कराने के लिए जन औषधि केंद्र को बढ़ावा देने की पहल की है, लेकिन जेनेरिक दवा लिखने से डॉक्टर परहेज कर रहे हैं और स्वार्थवश इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं।
गौरतलब है कि आमतौर पर साढ़े तीन सौ-चार सौ  तरह की दवाइयां के लिखने के लिए न केवल सरकार बल्कि शासन भी चिकित्सकों को लगातार एडवाइजरी जारी करता रहता है। कई बार कहा गया कि मरीज को जेनेरिक दवा ही लिखी जाए, लेकिन चिकित्सक नहीं मान रहे हैं।
चिकित्सकों की खुदगर्जी के लिए गरीब जनता को मामूली बीमारी में भी हजारों खर्च करने पड़ते हैं।
सरकार ने शहरों में कई स्थानों पर जन-औषधि केंद्र खोले हैं, ताकि मरीजों को दवाइयां सस्ते दाम पर मिल सकें।
लेकिन, डॉक्टर अपने फायदे के लिए जेनेरिक दवाइयां नहीं लिखते हैं। कई मरीज जागरूक हैं और वह स्वयं पर्चा लेकर जन औषधि केंद्र पर पहुंच जाते हैं जहां उन्हें दवा मिल भी जाती है, पर मरीज दवा चिकित्सक को दिखाने जाता है तो वह यह कहकर इसे रिजेक्ट कर देते हैं कि यह सही दवा नहीं है। इस पर मरीज को दवा मजबूरन वापस करनी पड़ती है। इन स्थितियों से जन-औषधि केंद्र संचालक भी आजिज आ चुके हैं।
जानकारों का कहना है कि पूरा खेल कमीशन और बिचौलियों का है। इसी में फंस कर लोग ठगे जा रहे हैं, जिस जेनेरिक की टेबलेट की कीमत 20 पैसे होती है उसे ब्रांडेड में एक रुपये में बेचा जाता है। यानि सीधे पांच गुना ज्यादा कीमत। इसे बड़े रूप में देखें तो 100 रुपये की दावा 500 रुपये में और 500 रुपये की दावा 2500 रुपये में बिक रही है। कीमत में यह अंतर इससे थोड़ा कम या ज्यादा भी हो सकता है।
जेनेरिक दवा का कोई ब्रांड नेम नहीं होता है और वह जिस साल्ट (केमिकल) से बनी होती है उसी के नाम से जानी जाती है। जैसे दर्द और बुखार में काम आने वाली पैरासीटामोल साल्ट को इसी नाम से बेचा जाए तो उसे जेनेरिक कहेंगे। वहीं जब इसे किसी ब्रांड (जैसे क्रोसिन) के नाम से बाजार में उतारा जाता है तो यह संबंधित कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है।
अब सवाल यह उठता है कि ब्रांडेड दवा के मुकाबले जेनेरिक दवा इतनी सस्ती क्यों है। आपको बता दे कि फार्मा कंपनियां अपनी ब्रांडेड दवाइयों के पेटेंट और विज्ञापन पर काफी रकम खर्च करती हैं। वे अपनी दवाओं को लिखने वाले चिकित्सकों व विक्रेताओं को मोटा कमीशन भी देती हैं। जबकि जेनेरिक दवाई की कीमत तय करने में सरकार का सीधा दखल होता है।
कमीशन के लालच में ही अनेक चिकित्सक ब्रांडेड दवाओं को ही खरीदने पर जोर देते हैं।

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